मुफ्तखोरी सरकार को दिवालियापन के रास्ते पर धकेल सकती है।
मुफ्तखोरी सरकार को दिवालियापन के रास्ते पर धकेल सकती है।
अदालत ने उसके समक्ष रखे गये पहलुओं की 'व्यापक' सुनवाई की आवश्यकता जताते हुए कहा कि हालांकि सभी वादों को मुफ्त उपहार के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है, क्योंकि वे कल्याणकारी योजनाओं या जनता की भलाई के उपायों से संबंधित होते हैं. लेकिन चुनावी वादों की आड़ में वित्तीय जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ा जा सकता है।
अदालत ने कहा कि ये योजनाएं न केवल राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों का हिस्सा हैं, बल्कि कल्याणकारी राज्य की जिम्मेदारी भी है. चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एन. वी. रमणा, जस्टिस हिमा कोहली और जस्टिस सी. टी. रविकुमार की बेंच ने इस बात का संज्ञान लिया कि इन याचिकाओं में उठाये गये कुछ प्रारम्भिक मुद्दों पर विचार किये जाने की आवश्यकता है।
जस्टिस रमणा के कार्यकाल का आज अंतिम दिन था. कोर्ट का यह आदेश 'मुफ्त उपहार' बनाम 'कल्याणकारी योजनाओं' को लेकर जारी बहस के बीच आया है. बेंच ने कहा, ''मुफ्त सुविधाएं ऐसी स्थिति पैदा कर सकती हैं जहां राज्य सरकार धन की कमी के कारण बुनियादी सुविधाएं प्रदान नहीं कर सकती है. राज्य को आसन्न दिवालियापन की ओर धकेल दिया जा सकता है. हमें याद रखना चाहिए कि इस तरह के मुफ्त उपहार की सुविधा प्रदान करके करदाताओं के पैसे का उपयोग केवल अपनी पार्टी की लोकप्रियता बढ़ाने और चुनावी संभावनाओं के लिए किया जाता है.”
अदालत ने कहा कि उसके समक्ष तर्क रखा गया कि 'एस. सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार एवं अन्य' के मामले में शीर्ष अदालत के दो-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिए गए 2013 के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. बेंच ने कहा, ''इसमें शामिल मुद्दों की जटिलताओं एवं सुब्रमण्यम बालाजी मामले में इस अदालत के दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिए गए फैसले को रद्द करने के अनुरोध को देखते हुए, हम याचिकाओं के इस समूह को प्रधान न्यायाधीश का आदेश मिलने के बाद तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सूचीबद्ध करने का निर्देश देते हैं।
शीर्ष अदालत ने शुक्रवार को कहा कि चार सप्ताह बाद इन याचिकाओं को सूचीबद्ध किया जाएगा. न्यायालय ने 2013 के अपने फैसले में कहा था कि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 में निर्धारित मापदंडों की समीक्षा करने और उन पर विचार करने के बाद, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि चुनावी घोषणा पत्र में किए गए वादों को धारा 123 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं कहा जा सकता।
पीठ ने कहा, ''आखिरकार, ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक दलों द्वारा उठाए गए मुद्दों को किसी भी आदेश को पारित करने से पहले व्यापक सुनवाई की आवश्यकता है.''पीठ ने कहा कि इन याचिकाओं में उठाए गए सवाल राजनीतिक दलों द्वारा अपने चुनावी घोषणापत्र के हिस्से के रूप में या चुनावी भाषणों के दौरान मुफ्त उपहार बांटने के वादे से संबंधित हैं।
न्यायालय ने आगे कहा कि याचिकाकर्ताओं की मुख्य दलील यह है कि इस तरह के चुनावी वादों का राज्य की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है और इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती है. पीठ ने कहा, ''इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमारे जैसे चुनावी लोकतंत्र में, सच्ची शक्ति अंततः मतदाताओं के पास होती है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि यह मतदाता ही तय करता है कि कौन सी पार्टी या उम्मीदवार सत्ता में आएगा और वे विधायी कार्यकाल के अंत में उक्त पार्टी या उम्मीदवार के प्रदर्शन का भी आकलन करते हैं. न्यायालय ने बृहस्पतिवार को सुनवाई के दौरान कहा था कि राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त उपहार देने की प्रथा से संबंधित 'गंभीर' मुद्दे पर विचार होना चाहिए. पीठ ने पूछा था कि केंद्र इस मामले पर सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं बुला सकता।
पीठ अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर याचिकाओं पर विचार कर रही थी, जिसमें चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा इस तरह के वादों का विरोध किया गया है. याचिकाकर्ता की मांग है कि चुनाव आयोग ऐसे दलों के चुनाव चिह्न जब्त करने और उनका पंजीकरण रद्द करने की अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करे।
शीर्ष अदालत ने 23 अगस्त को मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि सभी राजनीतिक दल मुफ्त उपहार के पक्ष में हैं और इस वजह से इससे निपटने का न्यायिक प्रयास किया गया है. पीठ ने कहा था,''मैं कह सकता हूं कि इस मुद्दे पर भाजपा सहित सभी राजनीतिक दल एक ओर हैं. हर कोई मुफ्त की चीजें चाहता है. यही कारण है कि हमने प्रयास किया है।
जय हिंद
धन्यवाद
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